बहुत उम्मीद थी मंज़िल पे जा कर चैन पाएँगे
मगर मंज़िल पे जब पहुँचे तो नज़्म-ए-कारवाँ बदला
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रह-ए-हयात चमक उठ्ठे कहकशाँ की तरह
है तिश्ना-लबी लेकिन हम क्यूँ उसे ज़हमत दें
तीरा-ओ-तार फ़ज़ाओं में जिया हूँ अब तक
ताबानी-ए-रुख़ ले कर तुम सामने जब आए
दिल की धड़कन भी है उन को नागवार
ये तो मालूम है उन तक न सदा पहुँचेगी
चंद तिनकों के सिवा क्या था नशेमन में मिरे
शबनम ने रो के जी ज़रा हल्का तो कर लिया
ख़ुशी के फूल खिले थे तुम्हारे साथ कभी
मुझ को तो ख़ून-ए-दिल ही पीना है
हुई सुब्ह जाम खनक उठे हुई शाम नग़्मे बिखर गए
क्या इसी को बहार कहते हैं