वो सिर्फ़ मैं हूँ जो सौ जन्नतें सजा कर भी
उदास उदास सा तन्हा दिखाई देने लगे
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कश्मकश
मजबूरियाँ
रद्द-ए-अमल
यूँ ही आँखों में आ गए आँसू
तसलसुल
इन ग़ज़ालान-ए-तरह-दार को कैसे छोड़ूँ
ग़म पर हैं तअ'ना-ज़न तो ख़ुशी भी निभाइए
बुझ गई कुछ इस तरह शम्-ए-'सलाम'
ये अब्र-ओ-बाद ये तूफ़ान ये अँधेरी रात
आज फिर ये कह रहा हूँ
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं