कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
जब आँसुओं से भरी हों आँखें तो मुस्कुराना भी चाहते हैं
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सड़क बन रही है
वो दिल से तंग आ के आज महफ़िल में हुस्न की तमकनत की ख़ातिर
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
अब मा-हसल हयात का बस ये है ऐ 'सलाम'
कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल
बन गई है मौत कितनी ख़ुश-अदा मेरे लिए
रोज़ पूजा के लिए फूल सजाता है 'सलाम'
रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया
बहुत दिनों की बात है....
थोड़ी देर ऐ साक़ी बज़्म में उजाला है