ग़म मुसलसल हो तो अहबाब बिछड़ जाते हैं
अब न कोई दिल-ए-तन्हा के क़रीं आएगा
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फूलों के देस चाँद सितारों के शहर में
न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने
आज फिर ये कह रहा हूँ
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
मेरी मौत ऐ साक़ी इर्तिक़ा है हस्ती का
पीतल का साँप
कभी कभी अर्ज़-ए-ग़म की ख़ातिर हम इक बहाना भी चाहते हैं
गुरेज़
आज तो शम्अ हवाओं से ये कहती है 'सलाम'
अस्पताल
मेरी फ़िक्र की ख़ुशबू क़ैद हो नहीं सकती
वो ज़िंदा है