आज तो शम्अ हवाओं से ये कहती है 'सलाम'
रात भारी है मैं बीमार को कैसे छोड़ूँ
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इन ग़ज़ालान-ए-तरह-दार को कैसे छोड़ूँ
गुरेज़
हम ऐसे लोग जल्द असीर-ए-ख़िज़ाँ हुए
शगुफ़्ता बच्चों का चेहरा दिखाई देने लगे
रद्द-ए-अमल
वो सिर्फ़ मैं हूँ जो सौ जन्नतें सजा कर भी
तुम शराब पी कर भी होश-मंद रहते हो
बहुत दिनों की बात है....
काश तुम समझ सकतीं ज़िंदगी में शाएर की ऐसे दिन भी आते हैं
ऐ मिरे घर की फ़ज़ाओं से गुरेज़ाँ महताब
रोज़ पूजा के लिए फूल सजाता है 'सलाम'
सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया