जंगली नाच
जंगली लिबास में एक पैकर-ए-गुदाज़
चल रहा है झाड़ियों में साँप झूम झूम कर
उड़ रहा है मोर अपने बाल चूम चूम कर
झील माँगने लगी शाम की हवा से साज़
एक बार तीन बार
दस्त-ए-संदली उठे
पाँव लहर खा गए
जिस्म-ए-नाज़ के शरार
झील के किनारे मस्त हो के नाचने लगे
जंगली जवान शाम को सुकून पा गए
झोंपड़ों से अपने अपने साज़ ले के आ गए
आसमाँ से चाँद और सितारे झाँकने लगे
चाँदनी में जाग उठी
सो रही थी सुब्ह से
बोल कैसे ख़्वाब थे?
मेरे ''बुध'' की मूर्ती
झाड़ियों से सुर्ख़ ज़र्द फूल तोड़ तोड़ कर
एक बार तीन बार और अब तो बार-बार
मूर्ती पे जंगली हसीना करती है निसार
चश्म ओ लब के रक़्स पर हाथ मोड़ मोड़ कर
रक़्स की शराब में
मोर मस्त हो गया
साँप जैसे सो गया
अक्स-ए-माहताब में
एक पैकर-ए-गुदाज़ और नाचने लगा
ढोलकों की मस्त चीख़ और तेज़ हो गई
जंगली हसीना और शोला-रेज़ हो गई
मूर्ती का देवता ख़ुद ही मुस्कुरा उठा
और जैसे चौंक कर
रक़्स बंद हो गया
किस क़दर ग़ुरूर था
कामयाब रक़्स पर
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