तुम्हें मिरे ख़याल की मुसव्विरी क़ुबूल हो
तुम्हें मिरे ख़याल की मुसव्विरी क़ुबूल हो
जदीद-तर फ़ज़ा-ए-अल्फ़-लैलवी क़ुबूल हो
हक़ीक़तों की तल्ख़ियों के मसअले कुछ और हैं
मगर ख़याल-ओ-ख़्वाब की ये शाइ'री क़ुबूल हो
तुम्हारा जिस्म मा'बद-ए-तसव्वुर-ए-नशात है
मुफ़क्किर-ए-बहार की ये बंदगी क़ुबूल हो
ब-वस्फ़-ए-इल्म-ओ-फ़न जिन्हें कभी सुकूँ न मिल सका
बहुत है गर उन्हें नशात-ए-आरज़ी क़ुबूल हो
हयात ख़ुद मिरी ही फ़िक्र का हसीं तिलिस्म है
अगर जहाँ को भी ये सेहर-ए-सामरी क़ुबूल हो
तुम्हारे हुस्न के तुफ़ैल ख़िज़्र-ए-शहर-ए-रज़ को भी
'सलाम' ऐसे शाइ'रों की कज-रवी क़ुबूल हो
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