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न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने - सलाम मछली शहरी कविता - Darsaal

न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने

न मौज-ए-बादा न ज़ुल्फ़ों न इन घटाओं ने

मुझे डसा है मिरी शोला-ज़ा नवाओं ने

ग़म-ए-हयात से टकरा के गीत बन जाना

सिखा दिया है मुझे आप की दुआओं ने

जो कज-कुलाह-ए-दयार-ए-तरब हैं सब कुछ हैं

मुझे तो लूट लिया है मिरी वफ़ाओं ने

कभी कभी तो सुना है हिला दिए हैं महल

हमारे ऐसे ग़रीबों की इल्तिजाओं ने

तुम्हारा हुस्न हो या मेरी शाएरी उन को

अमर किया है मोहब्बत की आत्माओं ने

ग़म-ए-हयात ओ ग़म-ए-दिल बहुत सही लेकिन

कोई सवाल किया है अभी घटाओं ने

किसी चमन किसी गुल-पैरहन के घर जाएँ

मुझी को ताक लिया मध-भरी हवाओं ने

अजीब बात है मैं जब भी कुछ उदास हुआ

दिया सहारा हरीफ़ों की बद-दुआओं ने

मैं बुत-कदों से मक़ाबिर में गिरने वाला था

मगर सँभाल लिया ख़ुश-नज़र ख़ुदाओं ने

ख़बर है गर्म कि इक तर्क-ए-लखनऊ को 'सलाम'

असीर कर लिया दिल्ली की अप्सराओं ने

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In Hindi By Famous Poet Salam Machhli Shahri. is written by Salam Machhli Shahri. Complete Poem in Hindi by Salam Machhli Shahri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.