रात कई दिनों से ग़ाएब थी
रात कई दिनों से ग़ाएब थी
सख़्त कोहरे की दबीज़ साअ'तों में
हल्क़ में
रम की एक पूरी बोतल झोंक के
सार्जेंट
रात की विजिलेन्स पे निकला
रात कई रातों से ग़ाएब थी
लौटा आठ घंटे के बा'द
ख़ाली हाथ मुज़्महिल निढाल सा
अपने घर
देखा रात बे लिबास
उस के सामने
पलंग पर पड़ी हुई थी
गाड़ रहा था सूरज
अपना नेज़ा
उस के ख़ुफ़िया क़ुफ़्ल में
बेड-रूम की खिड़की के एक शीशे पर
पानी की एक बे-रब्त लकीर
धीरे धीरे गिर रही थी
उस के ख़ाली हाथों से होते हुए
उस की पैंट के अगले हिस्से में
अड़े हुए क़लम के पास
सख़्त दबीज़ कोहरे की साअ'तों में
हल्क़ में
रम की एक पूरी बोतल झोंक के
सार्जेंट
रात की विजिलेन्स पे निकला
रात कई दिनों से ग़ाएब थी
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