हर एक ज़र्रा बार-ए-अमानत से डर गया
हर एक ज़र्रा बार-ए-अमानत से डर गया
इक मैं ही था कि तेरे मुक़ाबिल ठहर गया
हर चीज़ जल गई थी ब-जुज़ चश्म-ए-इन्तिज़ार
औरों के घर बुझा के जो मैं अपने घर गया
इस दौर-ए-इंतिशार का ये भी है हादिसा
तहज़ीब ज़िंदा रह गई इंसान मर गया
वो भी कभी था अपने क़बीले का आदमी
कल तेरी अंजुमन से जो बा-चश्म-ए-तर गया
तुम मुस्कुरा के एक तरफ़ हो गए मगर
इल्ज़ाम सारा ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ के सर गया
अब तक भी जिस को पाने की 'नय्यर' है आरज़ू
वो लम्हा-ए-अज़ीज़ न जाने किधर गया
(555) Peoples Rate This