यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
क्यूँ क़सम लूँ क़सम के क्या मअनी
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दुल्हन भी अगर बन के आएगी रात
बोसा हर वक़्त रुख़ का लेता है
हमा-तन हो गए हैं आईना
क़ाफ़िला जाता है साग़र की तरफ़ रिंदों का
मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे
बद्र और महर दो हैं नाम उन के
ज़िंदगी तक मिरी हँस लीजिए आप
ना-ख़ुश जो हो गुल-बदन किसी का
कअ'बे में सख़्त-कलामी सुन ली
इश्क़ करने में दिल भी क्या है शोख़
जी जाए मगर न वो परी जाए