रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
और पसीने की बू गुलाब में है
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गुफ़्तुगू हो दबी ज़बान बहुत
हिचकियाँ आती हैं पर लेते नहीं वो मेरा नाम
चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
रुख़ हाथ पे रक्खा न करो वक़्त-ए-तकल्लुम
तुम न आसान को आसाँ समझो
बाम पर आता है हमारा चाँद
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे
ली ज़बाँ उस की जो मुँह में हो गया ज़ौक़-ए-नबात
चश्म-ए-मय-गूँ वहाँ शराब लज़ीज़
अपने क़ासिद को सबा बाँधते हैं
फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह