क़ाफ़िला जाता है साग़र की तरफ़ रिंदों का
है मगर क़ुलक़ुल-ए-मीना जरस-ए-जाम-ए-शराब
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तुम अगर दो न पैरहन अपना
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
रुख़ पर है मलाल आज कैसा
इस तरफ़ बज़्म में हम थे वो थे
कअ'बे में सख़्त-कलामी सुन ली
यूँ परेशाँ कभी हम भी तो न थे
इन को नफ़रत इसे क्या कहते हैं
चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं