क्यूँ हसीनों की आँखों से न लड़े
मेरी पुतली की मर्दुमी ही तो है
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ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
रुख़ हाथ पे रक्खा न करो वक़्त-ए-तकल्लुम
पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
दिल ही मेरा फ़क़त है मतलब का
एक दो तीन चार पाँच छे सात
दुल्हन भी अगर बन के आएगी रात
क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं
ना-ख़ुश जो हो गुल-बदन किसी का
बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ
ज़िंदगी तक मिरी हँस लीजिए आप
दिल उसे दे दिया 'सख़ी' ही तो है
ये तो मालूम कि फिर आइएगा