ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
ऐसे तारे न ऐसा प्यारा चाँद
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क़ाफ़िला जाता है साग़र की तरफ़ रिंदों का
गुफ़्तुगू हो दबी ज़बान बहुत
मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं
बहार आ कर जो गुलशन में वो गाएँ
क़ासिद तिरे बार बार आए
न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन
अजी फेंको रक़ीब का नामा
तुम न आसान को आसाँ समझो
रुख़-ए-रौशन दिखाइए साहब
बात करने में होंट लड़ते हैं
मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
नज़'अ के दम भी उन्हें हिचकी न आएगी कभी