जीतेंगे न हम से बाज़ी-ए-इश्क़
अग़्यार के पिट पड़ेंगे पाँसे
Allama Iqbal
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Gulzar
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Jaun Eliya
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बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
'सख़ी' से छूट कर जाएँगे घर आप
इन को नफ़रत इसे क्या कहते हैं
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत
मैं तुझे फिर ज़मीं दिखाऊँगा
यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
रुख़-ए-रौशन पे सफ़ा लोट गई
वो आशिक़ हैं कि मरने पर हमारे
फिर उलझते हैं वो गेसू की तरह
दिल उसे दे दिया 'सख़ी' ही तो है
दिल कलेजे दिमाग़ सीना ओ चश्म
न छोड़ा हिज्र में भी ख़ाना-ए-तन