हिचकियाँ आती हैं पर लेते नहीं वो मेरा नाम
देखना उन की फ़रामोशी को मेरी याद को
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क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं
तुम न आसान को आसाँ समझो
रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
मिरे लाशे को कांधा दे के बोले
ज़ुल्फ़-ए-शब-रंग जो बनाई है
घर में साक़ी-ए-मस्त के चल के
पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
ना-ख़ुश जो हो गुल-बदन किसी का
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
इस तरफ़ बज़्म में हम थे वो थे
नक़्द-ए-दिल का बड़ा तक़ाज़ा है
क्यूँ हसीनों की आँखों से न लड़े