दर्द को गुर्दा तड़पने को जिगर
हिज्र में सब हैं मगर दिल तो नहीं
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मुंकिर-ए-बुत है ये जाहिल तो नहीं
क़ासिद तिरे बार बार आए
पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
है चमन में रहम गुलचीं को न कुछ सय्याद को
बात करने में होंट लड़ते हैं
तुम अगर दो न पैरहन अपना
हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी
देखो क़लई खुलेगी साफ़ उस की
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
'सख़ी' से छूट कर जाएँगे घर आप
गुफ़्तुगू हो दबी ज़बान बहुत
तुम न आसान को आसाँ समझो