दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
इस गुनहगार का ख़ुदा-हाफ़िज़
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चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
था मिरा नाख़ुन-ए-तराशीदा
देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
रुख़ हाथ पे रक्खा न करो वक़्त-ए-तकल्लुम
बहुत ख़्वाब-ए-ग़फ़लत में दिन चढ़ गया
नज़'अ के दम भी उन्हें हिचकी न आएगी कभी
क़ासिद तिरे बार बार आए
उन की चुटकी में दिल न मल जाता
न बचपन में कहो हम को कड़ी बात
हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी
है चमन में रहम गुलचीं को न कुछ सय्याद को
ख़ाल और रुख़ से किस को दूँ निस्बत