चर्ख़ पर बद्र जिस को कहते हैं
यार का साग़र-ए-सिफ़ाली है
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तीस दिन यार अब न आएगा
कहना मजनूँ से कि कल तेरी तरफ़ आऊँगा
रंगत उस रुख़ की गुल ने पाई है
बात करने में होंट लड़ते हैं
बद्र और महर दो हैं नाम उन के
ली ज़बाँ उस की जो मुँह में हो गया ज़ौक़-ए-नबात
दिल ही मेरा फ़क़त है मतलब का
क़ासिद तिरे बार बार आए
बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
था मिरा नाख़ुन-ए-तराशीदा
देखें कहता है ख़ुदा हश्र के दिन
हैफ़ साबित है जेब ने दामन