बद्र और महर दो हैं नाम उन के
इक जमाली है एक जलाली है
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उन की चुटकी में दिल न मल जाता
शैख़-जी बुत की बुराई कीजे
ली ज़बाँ उस की जो मुँह में हो गया ज़ौक़-ए-नबात
की ख़िताबत को गर ख़ुदा समझा
वो आशिक़ हैं कि मरने पर हमारे
बर्ग-ए-गुल आ मैं तेरे बोसे लूँ
न बचपन में कहो हम को कड़ी बात
क़ब्र में अब किसी का ध्यान नहीं
इश्क़ है यार का ख़ुदा-हाफ़िज़
यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
दफ़्न हम हो चुके तो कहते हैं
तुम अगर दो न पैरहन अपना