रुख़-ए-रौशन पे सफ़ा लोट गई
रुख़-ए-रौशन पे सफ़ा लोट गई
ज़ुल्फ़ पर काली बला लोट गई
सुन के गुलशन में मिरे नाला-ओ-आह
बुलबुल-ए-नग़्मा-सरा लोट गई
उस बुत-ए-मस्त पे मय-ख़ाने में
दुख़्तर-ए-रज़ ब-ख़ुदा लोट गई
हम न मरते उस अदा पर लेकिन
पाँव पर आ के क़ज़ा लोट गई
तंग हूँ अपनी तबीअ'त से मैं
जो हसीन इस को मिला लोट गई
ऐ 'सख़ी' ख़ूब ग़ज़ल तू ने कही
सुन के तब्-ए-शोअरा लोट गई
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