पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
पहलू में बैठ कर वो पाते क्या
दिल तो था ही नहीं चुराते क्या
हिज्र में ग़म भी एक नेमत है
ये न होता तो आज खाते क्या
मुर्ग़-ए-दिल ही का कुछ रहा मज़कूरा
और बे-पर की वाँ उड़ाते क्या
राह की छेड़-छाड़ ख़ूब नहीं
वो बिगड़ता तो हम बनाते क्या
सदमा हासिल हुआ अलम लाए
और कूचे से उस के लाते क्या
शैख़-जी कहते हैं ग़िना को हराम
उन से पूछो तो हैं ये गाते क्या
लाग़र ही से कफ़न में था भी मैं
मेरी मय्यत को वो उठाते क्या
ख़ाक उस कूचे की न ला रखते
तो 'सख़ी' क़ब्र में बिछाते क्या
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