निखरा ख़िज़ाँ से रंग-ए-बहाराँ है इन दिनों
निखरा ख़िज़ाँ से रंग-ए-बहाराँ है इन दिनों
वीरानियों से बढ़ के गुलिस्ताँ है इन दिनों
कम-माया मोर माइल-ए-परवाज़ क्यूँ हुए
बरहम बहुत मिज़ाज-ए-सुलैमाँ है इन दिनों
फिर तेज़ हो चली है हवा-ए-फ़रेब-ए-इश्क़
कितना हसीन अहद है पैमाँ है इन दिनों
शैख़ आ गया बुलंदी-ए-मिम्बर से फ़र्श पर
फिर साज़िश-ए-बुलंद का इम्काँ है इन दिनों
खींची अजीब कर्ब से साहिल ने आह-ए-सर्द
गोया सुकूत बर-लब-ए-तूफ़ाँ है इन दिनों
फिर बढ़ के हम ने जाम-ए-तमन्ना उठा लिया
फिर इक नई शिकस्त का अरमाँ है इन दिनों
वो दौर-ए-हादसात-ए-जहाँ है कि अल-अमाँ
अपना तो बस ख़ुदा ही निगहबाँ है इन दिनों
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