मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था
मैं हम-नफ़साँ जिस्म हूँ वो जाँ की तरह था
मैं दर्द हूँ वो दर्द के उनवाँ की तरह था
तू कौन था क्या था कि बरस गुज़रे प अब भी
महसूस ये होता है रग-ए-जाँ की तरह था
जिस के लिए काँटा सा चुभा करता था दिल में
पहलू में वो आया तो गुलिस्ताँ की तरह था
इक उम्र उलझता रहा दुनिया की हवा से
क्या मैं भी तिरे काकुल-ए-पेचाँ की तरह था
जीना तो ग़ज़ब है मगर ऐ उम्र अजब है
तुझ को तो ख़बर है वो मिरी जाँ की तरह था
ऐ रात के अँधियारे में जागे हुए लम्हो!
ढूँडो उसे वो ख़्वाब-ए-परेशाँ की तरह था
मिट्टी को यहाँ पाँव पकड़ना नहीं आता
मैं शहर में भी गर्द के तूफ़ाँ की तरह था
लो हर्फ़-ए-ग़ज़ल बन के नुमायाँ हुआ 'बाक़र'
कल रम्ज़-सिफ़त मअ'नी-ए-पिन्हाँ की तरह था
(510) Peoples Rate This