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घिरते बादल में तन्हाई कैसी लगती है - सज्जाद बाक़र रिज़वी कविता - Darsaal

घिरते बादल में तन्हाई कैसी लगती है

घिरते बादल में तन्हाई कैसी लगती है

मिलन का मौसम और जुदाई कैसी लगती है

सूने मन के तारों से जब बातें होती हों

दूजे आँगन की शहनाई कैसी लगती है

दिल की चोट उभर आए और ज़ख़्म हरे हो जाएँ

यादों की चलती पुर्वाई कैसी लगती है

तुम को शहर-ए-ख़याल में रहना कैसा लगता है

वो बस्ती जो दिल ने बसाई कैसी लगती है

चढ़ते रूप की सूरज देवता और भी मान बढ़ाएँ

धुँदली आँखों की बीनाई कैसी लगती है

जग बीते जब जगमग ये दिल उस की जोत से था

अब जो वो सूरत फिर याद आई कैसी लगती है

दिल तो अपना भर भर आए निय्यत नहीं भरे

उम्र का हासिल ऐसी कमाई कैसी लगती है

बचपन और जवानी बूढ़ी उम्र के दर पे हैं

तीनों ज़मानों की यकजाई कैसी लगती है

'बाक़र' सारी उम्र गुज़ारी कू-ए-मलामत में

आख़िर उम्र की ये रुस्वाई कैसी लगती है

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In Hindi By Famous Poet Sajjad Baqar Rizvi. is written by Sajjad Baqar Rizvi. Complete Poem in Hindi by Sajjad Baqar Rizvi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.