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शब की ज़ुल्फ़ें सँवारता हुआ मैं - सज्जाद बलूच कविता - Darsaal

शब की ज़ुल्फ़ें सँवारता हुआ मैं

शब की ज़ुल्फ़ें सँवारता हुआ मैं

ये तिरे साथ जागता हुआ मैं

रिश्ता-ए-जाँ से कट गया यकसर

कुछ तअ'ल्लुक़ निबाहता हुआ मैं

वो सर-ए-बज़्म झूमता हुआ तू

ये सर-ए-रह कराहता हुआ मैं

वो सर-ए-शाख़ तू महकता हुआ

और सर-ए-ख़ाक सूखता हुआ मैं

गिर गया थक के अपने क़दमों में

तुझ से तुझ को ही माँगता हुआ मैं

अक्स-दर-अक्स फैलता हुआ तू

ख़्वाब-दर-ख़्वाब भागता हुआ मैं

तेरे सरसब्ज़ मौसमों से जुदा

दश्त की ख़ाक फांकता हुआ मैं

अपने ताज़ा वजूद में गुम हूँ

तुझे नस्लों से खोजता हुआ मैं

मुझे क़रनों में सोचता हुआ तू

तुझे सदियों में ढूँढता हुआ मैं

ये मिरा दर्द भूलता हुआ तू

ये तिरी ख़ैर माँगता हुआ मैं

अद्ल की मस्लहत का आईना

ये सर-ए-दार झूलता हुआ मैं

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In Hindi By Famous Poet Sajjad Baluch. is written by Sajjad Baluch. Complete Poem in Hindi by Sajjad Baluch. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.