क्या जाने कब लम्हों की मफ़रूर समाअत लौटे
अच्छी अच्छी आवाज़ों के जाल बिछाते रहना
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हवा में कुछ तो घुला था कि होंट नीले हुए
तो यूँ कहो ना दिलों का शिकार करना है
लफ़्ज़ का कितना तक़द्दुस है ये कब जानते हैं
धीमी बारिश की लय में अहवाल सुनाते रहना
उधड़े हुए मल्बूस का परचम सा गया है
जलती हवाएँ कह गईं अज़्म-ए-सबात छोड़ दे
इक हवा उट्ठेगी सारे बाल-ओ-पर ले जाएगी
बनते रहे हैं दिल में अजब गर्द-बाद से
भटकी है उजालों में नज़र शाम से पहले
इक दर्द सब के दर्द का मज़हर लगा मुझे