लफ़्ज़ का कितना तक़द्दुस है ये कब जानते हैं
लफ़्ज़ का कितना तक़द्दुस है ये कब जानते हैं
लोग बस बात बना लेने का ढब जानते हैं
अपनी पहचान भला डोलते लफ़्ज़ों में कहाँ
ज़ब्त का नश्शा लरज़ते हुए लब जानते हैं
सब ने गुल-कारी-ए-दीवार-ए-सरा ही लेकिन
कितने दीवार उठाने का सबब जानते हैं
शहर वाले तो हवाओं में घुले ज़हर का हाल
रंग तस्वीर से उड़ जाते हैं तब जानते हैं
आप चाहें तो उसे जोश-ए-नुमू कह लीजे
हम मगर बर्फ़ सुलगने का सबब जानते हैं
धूप का अक्स भी 'सज्जाद' फ़क़त साया है
किस तरह दिन में समा जाती है शब जानते हैं
(660) Peoples Rate This