वफ़ा-ओ-मेहर-ओ-अल्ताफ़-ओ-करम थे हम-इनाँ क्या क्या
वफ़ा-ओ-मेहर-ओ-अल्ताफ़-ओ-करम थे हम-इनाँ क्या क्या
हुए हैं अपने ही दिल से मगर हम बद-गुमाँ क्या क्या
पर-ए-पर्वाज़ नीला आसमाँ मंज़िल सितारों की
कटे शहपर तो याद आने लगीं जौलानियाँ क्या क्या
ये अपना दिल जो अब आसेब-ए-ख़ामोशी का मस्कन है
कभी गुज़रे थे इस सूनी डगर से कारवाँ क्या क्या
सुकूत-ए-नीम-शब की आहटें और रात का जादू
ये मंज़र साथ ले आया तिरी दिलदारियाँ क्या क्या
जहाँ अहल-ए-नज़र अहल-ए-हुनर की हुक्मरानी थी
वहाँ मिनक़ार-ए-ज़ेर-ए-पर हैं बैठे नुक्ता-दाँ क्या क्या
अब अपने घर का भी अहवाल लब पर ला नहीं सकते
किया करते थे हम अहवाल-ए-आलम का बयाँ क्या क्या
अजब तीरा-शबी से अब रह-ओ-रस्म-ए-जुनूँ ठहरी
हुए निस्याँ के पर्दे में मह-ओ-अंजुम निहाँ क्या क्या
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