किश्त-ए-वीराँ की तरह तिश्ना रही रात मिरी
किश्त-ए-वीराँ की तरह तिश्ना रही रात मिरी
लौट आई तिरे दर से भी मुनाजात मिरी
तो लहू बन के रगों में मिरी दौड़ा लेकिन
तिश्ना-ए-दीद रही तुझ से मुलाक़ात मिरी
दिल पे खुलते नहीं असरार-ए-वजूद और अदम
यही हैरान-निगाही है मुकाफ़ात मिरी
कौन समझा मिरी बेदार-निगाही की हुदूद
यूँ तो हर हाथ में थी शरह-ए-हिकायात मिरी
गरचे आवारा रहे मेरे फ़साने हर सू
राज़-ए-सर-बस्ता ज़माने में रही ज़ात मिरी
साज़-ओ-आहंग का ए'जाज़ था हर लफ़्ज़ मिरा
फूँक डाली ख़स-ओ-ख़ाशाक ने सौग़ात मिरी
हैं ज़मीं और ज़माँ दूद-ए-चराग़-ए-शब-ए-ग़म
मुझ को ले आई कहाँ गर्दिश-ए-हालात मिरी
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