शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
शाम-ए-ग़म की सहर नहीं होती
आह भी कारगर नहीं होती
जब उठाते हैं वो नक़ाब-ए-रुख़
मेरे बस में नज़र नहीं होती
मेरे ज़ख़्म-ए-जिगर को वहशत में
हाजत बख़िया-गर नहीं होती
उस से उम्मीद-ए-रहम क्या करते
जिस की सीधी नज़र नहीं होती
कश्मकश में हूँ मैं मसाइब के
ज़िंदगानी बसर नहीं होती
ऐसे आलम में देखता हूँ मैं
जब किसी की नज़र नहीं होती
ग़ैर की सम्त देखने वाले
क्यूँ तवज्जोह इधर नहीं होती
तूल खींचा है यूँ शब-ए-ग़म ने
किसी सूरत सहर नहीं होती
दिल चुराती है यूँ निगाह-ए-नाज़
और मुझ को ख़बर नहीं होती
दिल लगा कर सुकूँ ग़लत 'साजिद'
आशिक़ी चारागर नहीं होती
(582) Peoples Rate This