ऐसी आग फ़लक से बरसेगी इक दिन
ख़ाक हवा पानी पत्थर जल जाएँगे
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नज़र को तीर कर के रौशनी को देखने का
राएगाँ हो रही थी तंहाई
ज़मीं की आँख ख़ाली है दिनों ब'अद
मुंजमिद था लहू रग-ओ-पय में
मैं चाहता हूँ कि हर शय यहाँ सँवर जाए
रंग बिरंगे सपनों जैसी आँखें तेरी
नया रौशन सहीफ़ा दिख रहा नईं
आँख से टूट कर गिरी थी नींद
दर्द इतना भी नहीं है कि छुपा भी न सकूँ
रूह को पहले ख़ाकसार किया
ज़हर में डूबी हुई सुर्ख़ हिकायात में गुम