नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
नक़्श जब ज़ख़्म बना ज़ख़्म भी नासूर हुआ
जा के तब कोई मसीहाई पे मजबूर हुआ
पर पर्वाज़ भी तब तक न खुले थे जब तक
बैठ जाने की थकन से न बदन चूर हुआ
दिन की छलनी में तिरा लम्हा-ए-फ़ुर्सत छाने
दिल तो लगता है इसी काम पे मामूर हुआ
दामन-ए-दोस्त है इक ज़ेहन के पर्दों में कहीं
जिस क़दर हाथ बढ़ाया है सो वो दूर हुआ
कभी बे-सम्त न होने की दुआ माँगी थी
कसरत-ए-सम्त से रस्ता मिरा मामूर हुआ
चीख़ना चाहती हूँ चीख़ नहीं पाती हूँ
ख़्वाब होता था हक़ीक़त को भी मंज़ूर हुआ
(618) Peoples Rate This