मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
मयस्सर ख़ुद निगह-दारी की आसाइश नहीं रहती
मोहब्बत में तो पेश-ओ-पस की गुंजाइश नहीं रहती
अँधेरे और भी कुछ तेज़-रफ़्तारी से बढ़ते हैं
दिया कोई जलाने की जहाँ कोशिश नहीं रहती
ये दिल तो किस तरफ़ जाने बहा कर ले गया होता
निगाहों में अगर वो साअत-ए-पुर्सिश नहीं रहती
मह-ओ-अंजुम से लौट आएँ इजारा-दार दुनिया के
जहाँ ये पाँव रखते हैं वहाँ ताबिश नहीं रहती
बहुत से फूल लहजे ख़ार होते हम ने देखे हैं
किसी शीरीं-नवा की दिल को अब ख़्वाहिश नहीं रहती
मुसल्लस का ख़त-ए-सालिस मुझे मिल कर नहीं देता
कभी क़िस्मत से वो रुक जाए तो बारिश नहीं रहती
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