ज़ख़्मों को मिरे रंग हिना दे गई सबा
ज़ख़्मों को मिरे रंग हिना दे गई सबा
चाहा था क्या बहार में क्या दे गई सबा
परवाज़ कर रही है ख़लाओं में रूह भी
अपने मरीज़-ए-ग़म को शिफ़ा दे गई सबा
दश्त-ए-जुनूँ को गर्द उड़ी और जम गई
उर्यां था मेरा जिस्म क़बा दे गई सबा
दिल को उड़ा के ले गई मानिंद-ए-बू-ए-गुल
काँटों पे लोटने की सज़ा दे गई सबा
ये बर्क़ ये हवादिस-ए-दौराँ फ़ुज़ूल हैं
मेरी फ़ना को रंग-ए-बक़ा दे गई सबा
टूटा न फिर भी उस के ख़यालों का सिलसिला
दिल के क़रीब आ के सदा दे गई सबा
'सैलानी' उस बहार में जाते हुए हमें
मुरझाए गुल ग़मों की रिदा दे गई सबा
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