उस मुसाफ़िर की नक़ाहत का ठिकाना क्या है
संग-ए-मंज़िल जिसे दीवार नज़र आने लगे
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क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
दिल-ए-वीराँ को देखते क्या हो
जिस दिन से भुला दिया है तू ने
फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है
छुप छुप के अब न देख वफ़ा के मक़ाम से
लुत्फ़ फ़रमा सको तो आ जाओ
अपनी वुसअत में खो चुका हूँ मैं
कितना बेकार तमन्ना का सफ़र होता है
शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा