'सैफ़' पी कर भी तिश्नगी न गई
अब के बरसात और ही कुछ थी
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फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
शायद तुम्हारे साथ भी वापस न आ सकें
दिल ने पाया क़रार पहलू में
क्यूँ उजड़ जाती है दिल की महफ़िल
दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
कितने अंजान हैं क्या सादगी से पूछते हैं
रात गुज़रे न दर्द-ए-दिल ठहरे
'सैफ़' अंदाज़-ए-बयाँ रंग बदल देता है
जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
गरचे सौ बार ग़म-ए-हिज्र से जाँ गुज़री है
ये आलाम-ए-हस्ती ये दौर-ए-ज़माना
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम