फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
मुद्दई दो जहाँ के हम भी हैं
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कोई ऐसा अहल-ए-दिल हो कि फ़साना-ए-मोहब्बत
मग़रूर थे अपनी ज़ात पर हम
एक से एक है ग़ारत-गर-ए-ईमान यहाँ
जब वज्ह-ए-सुकून-ए-जाँ ठहर जाए
कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
छुप छुप के अब न देख वफ़ा के मक़ाम से
'सैफ़' अंदाज़-ए-बयाँ रंग बदल देता है
हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
ऐसे लम्हे भी गुज़ारे हैं तिरी फ़ुर्क़त में
अब वो सौदा नहीं दीवानों में