क्या क़यामत है हिज्र के दिन भी
ज़िंदगी में शुमार होते हैं
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जी दर्द से है निढाल अपना
हमें ख़बर है वो मेहमान एक रात का है
तुम को बेगाने भी अपनाते हैं मैं जानता हूँ
जिस दिन से भुला दिया है तू ने
दिल-ए-नादाँ तिरी हालत क्या है
एक उदासी दिल पर छाई रहती है
मेरा होना भी कोई होना है
दुश्मन गए तो कशमकश-ए-दोस्ती गई
ज़ोहद किस किस ने लुटाए हैं तुम्हें क्या मालूम
फैल रहे हैं वक़्त के साए
आज की रात वो आए हैं बड़ी देर के ब'अद
छुप छुप के अब न देख वफ़ा के मक़ाम से