कैसे जीते हैं ये किस तरह जिए जाते हैं
अहल-ए-दिल की बसर-औक़ात पे रोना आया
Javed Akhtar
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दिल-ए-वीराँ को देखते क्या हो
वस्ल की बात और ही कुछ थी
हसीन रातों जमील तारों की याद सी रह गई है बाक़ी
क्या मंज़िल-ए-ग़म सिमट गई है
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
खोल कर इन सियाह बालों को
दर-पर्दा जफ़ाओं को अगर जान गए हम
फूल इस ख़ाक-दाँ के हम भी हैं
कोई नहीं आता समझाने
अपनी वुसअत में खो चुका हूँ मैं
एक उदासी दिल पर छाई रहती है