जी नहीं आप से क्या मुझ को शिकायत होगी
हाँ मुझे तल्ख़ी-ए-हालात पे रोना आया
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गरचे सौ बार ग़म-ए-हिज्र से जाँ गुज़री है
तुम ने दीवाना बनाया मुझ को
तेरी आँखों में रंग-ए-मस्ती है
चलो मय-कदे में बसेरा ही कर लो
कभी जिगर पे कभी दिल पे चोट पड़ती है
मिरी दास्तान-ए-हसरत वो सुना सुना के रोए
जब तसव्वुर में न पाएँगे तुम्हें
आप ठहरे हैं तो ठहरा है निज़ाम-ए-आलम
खोल कर इन सियाह बालों को
कोई नहीं आता समझाने
तिरी नज़र से ज़माने बदलते रहते हैं
शगुफ़्त-ए-गुंचा-ए-महताब कौन देखेगा