रुख़ पे यूँ झूम कर वो लट जाए
रुख़ पे यूँ झूम कर वो लट जाए
ख़िज़्र देखे तो उम्र कट जाए
उस नज़ारे से क्या बचे कोई
जो निगाहों से ख़ुद लिपट जाए
ये भी अंधेर हम ने देखा है
रात इक ज़ुल्फ़ में सिमट जाए
जाने तुझ से उधर भी क्या कुछ है
काश तू सामने से हट जाए
मौत ने खेल हम को जाना है
कभी आए कभी पलट जाए
डूबने तक में ना-उमीद नहीं
कब न जाने हवा पलट जाए
रात गुज़रे न दर्द-ए-दिल ठहरे
कुछ तो बढ़ जाए कुछ तो घट जाए
उन से कह कर भी देख लें ग़म-ए-दिल
'सैफ़' ये काम भी निपट जाए
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