इतने दुखी हैं हम को मसर्रत भी ग़म बने
इतने दुखी हैं हम को मसर्रत भी ग़म बने
अमृत हमारे होंट से मस हो तो सम बने
रोए ब-रंग-ए-अब्र फ़रिश्ते भी गूँध कर
किस दश्त-ए-अश्क-ओ-आह की मिट्टी से हम बने
कुछ और भी तो शीश-महल रास्ते में थे
क्यूँ हम फ़क़त निशाना-ए-संग-ए-सितम बने
आँखों के सामने है शिकस्ता दर-ए-सुकूँ
हम तक रहे हैं देर से तस्वीर-ए-ग़म बने
बरसे हैं दश्त-ए-ज़ीस्त में हम पर वो संग-ओ-ख़िश्त
यकजा सिमट के आएँ तो कोह-ए-अलम बने
लहजे के बाँकपन में छुपाते हैं दिल का सोज़
हम ऐसे रख-रखाव के फ़नकार कम बने
जो दास्ताँ मिटाई ज़ियादा लिखी गई
जितने हमारे हाथ तराशे क़लम बने
'ज़ुल्फ़ी' वो सरज़मीं कि जहाँ दफ़्न है 'शकेब'
वो क्यूँ न अहल-ए-फ़न के लिए मोहतरम बने
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