जो शिकायत-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी कभी लब पर अपने न ला सके
जो शिकायत-ए-ग़म-ए-ज़िंदगी कभी लब पर अपने न ला सके
वो शब-ए-फ़िराक़ की दास्ताँ भला क्या किसी को सुना सके
कई सर से गुज़रीं क़यामतें पड़ीं हम पे लाख मुसीबतें
दीं फ़लक ने कितनी अज़िय्यतें तुम्हें दिल से हम न भुला सके
तू वफ़ा-शनास ज़रूर है ये तमाम अपना क़ुसूर है
ये अजब जुनूँ का ग़ुरूर है तिरे आस्ताँ पे न जा सके
वही दर्द-ए-दिल की है दास्ताँ जो हमेशा दिल में रहे निहाँ
करे एक बार कोई बयाँ तो ज़माने-भर को रुला सके
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