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ये दुनिया दो-रंगी है - साहिर लुधियानवी कविता - Darsaal

ये दुनिया दो-रंगी है

ये दुनिया दो-रंगी है

एक तरफ़ से रेशम ओढ़े एक तरफ़ से नंगी है

एक तरफ़ अंधी दौलत की पागल ऐश-परस्ती

एक तरफ़ जिस्मों की क़ीमत रोटी से भी सस्ती

एक तरफ़ है सोनागाची एक तरफ़ चौरंगी है

ये दुनिया दो रंगी है

आधे मुँह पर नूर बरसता आधे मुँह पर चीरे

आधे तन पर कोढ़ के धब्बे आधे तन पर हीरे

आधे घर में ख़ुश-हाली है आधे घर में तंगी है

ये दुनिया दो-रंगी है

माथे ऊपर मुकुट सजाए सर पर ढोए गंदा

दाएँ हाथ से भिक्षा माँगे बाएँ से दे चंदा

एक तरफ़ भण्डार चलाए एक तरफ़ भिक-मंगी है

ये दुनिया दो-रंगी है

इक संगम पर लानी होगी दुख और सुख की धारा

नए सिरे से करना होगा दौलत का बटवारा

जब तक ऊँच और नीच है बाक़ी हर सूरत बे-ढंगी है

ये दुनिया दो-रंगी है

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