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मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं - साहिर लुधियानवी कविता - Darsaal

मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं

मतलब निकल गया है तो पहचानते नहीं

यूँ जा रहे हैं जैसे हमें जानते नहीं

अपनी ग़रज़ थी जब तू लिपटना क़ुबूल था

बाँहों के दाएरे में सिमटना क़ुबूल था

अब हम मना रहे हैं मगर मानते नहीं

हम ने तुम्हें पसंद किया क्या बुरा किया

रुत्बा ही कुछ बुलंद किया क्या बुरा किया

हर इक गली की ख़ाक तो हम छानते नहीं

मुँह फेर कर न जाओ हमारे क़रीब से

मिलता है कोई चाहने वाला नसीब से

इस तरह आशिक़ों पे कमाँ तानते नहीं

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