न मुँह छुपा के जिए हम न सर झुका के जिए
सितमगरों की नज़र से नज़र मिला के जिए
अब एक रात अगर कम जिए तो कम ही सही
यही बहुत है कि हम मिशअलें जला के जिए
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तरब-ज़ारों पे क्या बीती सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
तरब-ज़ारों पे क्या गुज़री सनम-ख़ानों पे क्या गुज़री
तुलू-ए-इश्तिराकियत
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ
सज़ा का हाल सुनाएँ जज़ा की बात करें
सदियों से इंसान ये सुनता आया है
गो मसलक-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी है कोई चीज़
ज़मीं ने ख़ून उगला आसमाँ ने आग बरसाई
रद्द-ए-अमल
लश्कर-कुशी
जब कभी उन की तवज्जोह में कमी पाई गई
ख़ुदा-ए-बर्तर तिरी ज़मीं पर ज़मीं की ख़ातिर ये जंग क्यूँ है