वफ़ा-शिआर कई हैं कोई हसीं भी तो हो
चलो फिर आज उसी बेवफ़ा की बात करें
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बर्बादियों का सोग मनाना फ़ुज़ूल था
तुलू-ए-इश्तिराकियत
अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
तुम हुस्न की ख़ुद इक दुनिया हो शायद ये तुम्हें मालूम नहीं
लहु नज़्र दे रही है हयात
उन के रुख़्सार पे ढलके हुए आँसू तौबा
ये ज़मीं किस क़दर सजाई गई
तिरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ
इस रेंगती हयात का कब तक उठाएँ बार
नाकामी
आज