मिरी नदीम मोहब्बत की रिफ़अ'तों से न गिर
बुलंद बाम-ए-हरम ही नहीं कुछ और भी है
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ख़ुद्दारियों के ख़ून को अर्ज़ां न कर सके
वो सुब्ह कभी तो आएगी
अब आएँ या न आएँ इधर पूछते चलो
नया सफ़र है पुराने चराग़ गुल कर दो
मायूस तो हूँ वा'दे से तिरे
'गाँधी' हो या 'ग़ालिब' हो
अपना दिल पेश करूँ अपनी वफ़ा पेश करूँ
लश्कर-कुशी
लब पे पाबंदी तो है
कोई तो ऐसा घर होता जहाँ से प्यार मिल जाता
आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके